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भोर के आँचल में

धर्मसिंह चौहान

प्रकाशक : हरबंश लाल एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5719
आईएसबीएन :81-89198-13-0

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प्रस्तुत है सामाजिक उपन्यास...

Bhor Ke Aanchal Mein a hindi book by Dharam Singh Chauhan - भोर के आँचल में - धर्मसिंह चौहान

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उन वीरो सैनिकों की मधुर स्मृति में समर्पित जिन्होंने स्वराष्ट्र के सम्मानार्थ सर्वस्व उत्सर्ग कर दिया

दो शब्द

राष्ट्र के कर्मठ, जागरूक प्रहरी अपनी शक्त-सुदृढ़ बाहों में विभिन्न अस्त्र-शस्त्र सँभाले सजग निगाहों से दिन-रात अपने वतन की लम्बी-चौड़ी सरहद पर चौकन्ने खड़े हैं। उन्हें अपने कर्तव्य के सक्षम न बर्फ़ीले पार्वत्य क्षेत्र में पड़नेवाली भयंकर शीत की परवाह है और न ही विस्तृत रेगिस्तान की झुलसा देने वाली भीषण गर्मी की। इन निर्भीक मस्तानों की राहों को अवरुद्ध करने वाली प्रत्येक शक्ति अपना अस्तित्व खोकर शून्य में विलीन हो जाती है।

प्राणोत्सर्ग को तत्पर राष्ट्र के वीर सैनिकों का जीवन युद्धकाल में अतीव महत्त्वपूर्ण हो जाता है। उन खौफ़नाक तबाही के क्षणों में पग-पग पर रेंगती-मडँराती मृत्यु से होते साक्षात्कार से स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए कितने अधिक कौशल एवं चातुर्य की आवश्यकता होती है, इसकी कल्पना मात्र से रोम-रोम काँप उठता है। युद्धभूमि के न जाने किस अदृश्य मोड़ पर, किस अनजाने-अनचाहे क्षण में विचरण करती सर्वभक्षी मौत अपना प्रलयंकारी पाश लेकर अचानक कब सम्मुख प्रकट हो जाये, नहीं कहा जा सकता। हाँ, संसार में मृत्यु का वरण अगणित स्वरूपों में किया जाता है, किन्तु राष्ट्र पर आच्छादित युद्ध के भयानक परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र-हित के लिए के लिए सर्वस्व अर्पण करने वाले तथा स्वत्व को बलिदान करनेवाले धीर-वीर सैनिक कभी नहीं मरते।

इसी सन्दर्भ में, अपने कर्त्तव्य पर आरूढ़ सैनिकों का अपना एक सुनहरा घर-संसार भी होता है जिसके पालन-पोषण का पूर्ण दायित्व भी भीषण युद्ध में सहर्ष कूदनेवाले-सिपाही के शक्त कन्धों पर होता है, किन्तु अगर दुर्भाग्यवश वह शत्रु से लड़ता हुआ मौत के मुँह में चला जाता है तो उसकी इस अमरता के बाद उसके आश्रय में पलनेवाले वृद्ध माता-पिता, अबोध भाई-बहन तथा दुःखी बीवी-बच्चे अनाथ बनकर रह जाते हैं। तब समाज के दुर्दान्त, दुराचारी लोग उन निरीहों को सर्वभोग की वस्तु समझ चीथड़े-चीथड़े करने पर आमादा हो जाते हैं और मानवीय मूल्यों की पूर्णतया अवहेलना करते हुए अपनी मनमानी करके घृणित कर्मों पर उतर आते हैं।

इस उपन्यास में एक ऐसे ही देश-भक्त सैनिक की वैधव्यप्राप्त धर्म-पत्नी, जो स्वयं पर होते अनन्त प्रहारों को मूक बनकर सहन करती चली जाती है, करुण एवं मार्मिक कल्पित कथा है।
लेखक अपने उद्देश्य की अभिव्यक्ति में किस सीमा तक सफल हुआ है, इसका निर्णय तो केवल सहृदय पाठक ही कर सकेंगे।

धर्म सिंह चौहान

एक

अगर आपको कभी भोरगढ़ जाने का सुअवसर मिले और वहाँ जाकर किसी भी छोटे-बड़े से पूछें कि मूर्ति और तस्वीर बनाने वाले बाबा रामनाथ का मकान किधर है तो आपको हर कोई सही पता बता देगा। अगर आप पूछना भी किसी से नहीं चाहते तथा जाना भी बाबा रामनाथ के पास चाहते हैं तो सबसे उचित यही होगा कि आप मुख्य द्वार से गाँव में प्रवेश कीजिये। कुछ सीधे जाकर फिर बायीं दिशा में मुड़ जाइये। अब लगभग पचास क़दम चलने के पश्चात आपको एक शानदार बैठक मिलेगी जिसमें कुछ ग्रामीण अवश्य बैठे मिलेंगे। असल में वे बैठे नहीं होंगे, क्योंकि ग्रामीण जन कम ही बैठ पाते हैं। उनसे ठाले बैठकर रहा भी नहीं जाता। वे या तो बैठकर हुक्का गुड़गुड़ा रहे होंगे या फिर निरर्थक बातों में मशगूल होंगे। इसके बाद आप दायें मुड़कर चलते जाइए। करीब़ सौ ग़ज़ जाने के बाद आपको या तो खट-खट की ध्वनि सुनायी देगी। या फिर किसी पुरुष-कंठ की सुरमधुर आवाज़ कोई गीत गुनगुना रही होगी। और पास जाने पर आप देखेंगे कि एक साठ-पैंसठ वर्षीय हष्ट-पुष्ट, लम्बा क़द, छोटी-मझोली आँखों में हल्का काजल, भरा हुआ चेहरा, सफ़ेद वस्त्रधारी तथा लगभग गंजे सिर-वाले पुरुष एकाग्र मन से या तो किसी पत्थर को तराश रहे होंगे या फिर कोई अच्छी-सी तस्वीर बना रहे होंगे। इनका बरामदा तथा दालान उत्कृष्ट मूर्तियों का विपुल भंडार प्रतीत होगा।

बाबा रामनाथ भोरगढ़ के मूल निवासी नहीं हैं। यहाँ तो ये आकर बसे हैं। स्वभाव से मृदु तथा मिलनसार व्यक्ति हैं। ये इतने मृदुभाषी हैं कि कुछ देर इनके पास बैठने से आप अनुभव करेंगे कि आप इनके पूर्व-परिचित हैं। मिलते ही बहुत आत्मीयता से हैं। आते ही आपसे खान-पान की इच्छा के विषय में पूछेंगे।

बाबा रामनाथ पाकशास्त्र में भी पारंगत हैं मांसाहारी तथा शाकाहारी दोनों प्रकार के इतने स्वादिष्ट भोजन बनाते हैं कि अगर आप इनके द्वारा पकाया भोजन केवल चखना ही चाहें तो आप चखते-चखते ही इतना खा लेंगे कि आपका पेट भर जायेगा। इनका हर किसी विषय पर थोड़ा-थोड़ा अधिकार है, इसलिए किसी भी विषय पर बोलकर विद्धत्तापूर्ण बातों से आपका मन मोह लेंगे। काफ़ी पढ़े-लिखे हैं, अंहकार के नाम पर शून्य भी नहीं हैं।
कुटुम्ब के नाम पर बाबा रामनाथ तथा उनकी सात-आठ वर्षीया नातिन- बस दो ही प्राणी घर में हैं। किसी भंयकर दुर्घटना में पत्नी पहले ही चल बसी है। अपनी एकमात्र पुत्री की इकलौती सन्तान ही, जिसको बड़ी मुश्किल-से भयानक बाढ़ के प्रकोप से बचाकर लाये हैं, इनके जीवन का एकमात्र सहारा है। इसी नातिन के सुखद भविष्य के लिए प्रतिवर्ष बाढ़ से घिरने वाले गाँव को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर इस छोटे-से भोरगढ़ गाँव में आ बसे हैं। यहाँ आकर सन्तुष्ट हैं। किसी प्रकार की परेशानी अनुभव नहीं करते हैं। सभी से बहुत मेल-मिलाप से रहते हैं। व्यक्तित्व के धनी हैं। कृषि के आवश्यक कार्यों से निबटकर बहुत-से ग्रामीण-जन शाम के समय इनके पास आकर बैठ जाते हैं तथा घर-संसार एवं ज्ञान-विज्ञान की बातें सुनते हैं। इनको भोरगढ़ में आये हुए अभी केवल चार-पाँच वर्ष ही हुए हैं, मगर गाँव में इतनी प्रतिष्ठा है कि सभी भोरगढ़वासी इनका बहुत सम्मान करते हैं। इनकी कही गयी बात को गिरानेवाला गाँव में शायद ही कोई आदमी हो। सभी इनकी बातों को सच्चे मन से मानते हैं। ये अब तक आपस में बहुत-से लड़ाई-झगड़ों को निबटाकर परस्पर मेल-मिलाप करा चुके हैं। इस समय भोरगढ़ गाँव एक भी मुक़दमा अदालत में नहीं है।

बाबा रामनाथ को बच्चों से विशेष प्यार है। बच्चे स्वतः ही इनसे कहानी सुनने आ पहुँचते हैं। यह भी बहुत चाव से कहानी सुनाते हैं। उनकी एक विशेषता यह भी है कि यह बच्चों में बच्चे हो जाते हैं और बड़ों में बड़े। गाते भी अच्छा हैं। इतनी दीर्घावस्था में भी कंठस्वर सुरमधुर हैं। बाबा रामनाथ जब गाते हैं तो मन करता है, सब काम-धंधा छोड़कर गाना ही सुनते रहें।
साथ-ही-साथ आपको भोरगढ़ गाँव की भौगोलिक स्थिति को भी जान लेना चाहिये। भारत-विख्यात मेरठ शहर से तीस-पैंतीस मील पश्चिम में, यमुना नदी के किनारे यह भोरगढ़ गाँव बसा हुआ है। लगभग बीस वर्ष पहले यह यमुना नदी इनके चरणों को धोती हुई बही है, किन्तु अब इससे लगभग एक मील दूर चली गयी है। खेतीबाड़ी से समृद्ध भोरगढ़ में हमेशा हरियाली छायी रहती है। जहाँ हरियाली, वहीं खुशहाली। विद्युत-कूपों की संख्या भी पर्याप्त है जिस कारण गाँव में अथाह पैदावार कर ली जाती है। भोरगढ़ दिन-प्रतिदिन प्रगति के पथ पर अग्रसर होता जा रहा है। लोग सम्पन्न होते जा रहे हैं।

दोपहर का समय है। सूर्यदेव सिर के ऊपर आ टिके हैं। प्रत्येक ग्रामवासी अपने नित्यकर्म में व्यस्त है। सारे गाँव में इक्का-दुक्का मनुष्य ही दिखायी पड़ता है।
ऐसे समय पर बाबा रामनाथ भी अपने कार्य में तल्लीन हैं। वह श्वेत पत्थर को नरमुंड की आकृति प्रदान करने में सुध-बुध खोये हुए हैं। साथ-ही-साथ कोई लोकगीत भी गाते जा रहे हैं जिसके बोल कुछ इस प्रकार हैं-


बन्दे पड़ा किस फेर में तेरी जिन्दगानी के दिन चार।
एक दिन जाना वहाँ, जहाँ है चला गया संसार।।
गिनती के मिले हैं साँस बढ़ाये से बढ़े कोन्या।
एक-एक पल का लेखा है वहाँ घटाये से घटे कोन्या।।
ऊपर से हुक्म आवै जब एक डिग बढ़े कोन्या।
गर तेरा ईमान सच्चा याद रख बात एक।
राम और रहीम एक, कृष्ण और करीम एक।
मालिक है सभी का वो ही उसी के हैं रूप अनेक।
मालिक है नाम अलग, नाम पै ना जाना चाहिये।
कर्मों को सुधार बन्दे कर्म अच्छा करना चाहिये।
कर्म है बलवान सबसे कर्म बड़ा होना चाहिये।
इन कर्मों की रेख से तुझे जन्म मिले हर बार।।
एक दिन जाना वहाँ, जहाँ है चला गया संसार।।

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